2019 लोकसभा चुनाव के चुनावी रण की तैयारियां सभी दलों ने अपने-अपने स्तर पर शुरू कर दी है. एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है और चुनाव का वक्त करीब आने के साथ ही यह तीखी और तीव्र होने की पूरी सम्भावनाएं है..
विपक्षी सरकार को किसी भी मुद्दे पर कोई रियायत नहीं देना चाहती और भाजपा सरकार की यह कोशिश है कि विपक्ष के हर वार को निष्क्रिय कर दिया जाए. निरन्तर हार से जूझ रही कांग्रेस को फिलहाल सभी क्षेत्रीय दलों में अपने लिये संजीवनी नजर आ रही है और मुश्किल हालातों से उबरने के लिए उनका साथ चाहती है.
कांग्रेस का एक मात्र लक्ष्य किसी भी तरह मोदी सरकार को 2019 में केंद्रीय सत्ता से बाहर करना है जिसके लिये वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है. इस का उदाहरण हम पिछले कर्नाटक चुनाव में देख चुके हैं. जिसमे सबसे कम सीटों के बावजूद जेडीएस को बिना शर्त समर्थन देकर कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया गया और भाजपा को सत्ता से पूरी तरह दूर कर दिया गया था.
कांग्रेस 2019 के आम चुनाव में भी इसी रणनीति के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी हालांकि महागठबंधन की अभी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है परंतु कोई भी विपक्षी दल इसकी सम्भावनाओं से इनकार नहीं कर रहा है. फिलहाल गठबंधन के मसले पर कोई भी दल अभी खुल कर सामने नहीं आ रहे हैं लेकिन राजनैतिक व सार्वजनिक मंचों पर साथ आने और हाथ से हाथ मिलाने से इस सुगबुगाहट को बल मिलता है कि देर-सबेर इन कयासों को अंजाम तक पहुंचा दिया जाएगा.
NDA के घटक दलों के बीच अभी भी असमंजस की स्थिति मौजूद है. भाजपा की प्रमुख सहयोगी शिवसेना पहले ही कई मुद्दों पर उनसे नाराज है और गाहे-बगाहे अपनी नाराजगी खुल कर व्यक्त करती है चाहे वो अपने मुखपत्र ‘सामना’ में लेख के जरिये हो या सार्वजनिक रूप से मीडिया के सामने सरकार की आलोचना करना हो उससे भी उन्हें कोई परहेज नहीं है.
हालांकि NDA के सहयोगी दलों के रुख के सवाल पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सब कुछ ठीक होने की बात कही, साथ ही कहा कि ‘जिन भी मुद्दों पर मतभेद की स्थिति है उसे बातचीत के जरिये सुलझा लिया जायेगा’. बिहार में NDA के साथी नीतीश कुमार 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये सीट आवंटन में किसी भी तरह का समझौता न करने की बात दोहरा चुके हैं और बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लोकसभा चुनाव लड़ने की शर्त भी रख दी गयी है.
कुल मिलाकर यदि कहा जाये तो यह 2019 का आम चुनाव नहीं होगा आसान.. बस इतना समझ लीजिये की ‘आग का दरिया’ है और हर दल को ‘डूब के जाना’ है. जिस दल में हर तरह की चुनौतियों से उबरने की क्षमता होगी वही प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंच पायेगा.
क्या 2019 में होगी मोदी की वापसी ?
पांच सालों की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद अधिकतर ओपिनियन पोल और सर्वेक्षण मोदी सरकार की वापसी का इशारा करते हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह हैं खुद नरेंद्र मोदी.
हालांकि पिछले पांच वर्षों में उनकी लोकप्रियता में कमी आयी है लेकिन आज भी देश मे उनकी लोकप्रियता विपक्षी नेताओं से कहीं ऊपर है. मई 2018 में एबीपी न्यूज-CSDS के सर्वेक्षण के अनुसार 60% लोगों ने एनडीए का समर्थन किया है, जबकि यूपीए का सिर्फ 34% लोगों ने और 6% लोग दूसरों के पक्ष में है. 2014 में यह आंकड़ा 51% एनडीए के पक्ष में था और 28% यूपीए के पक्ष में व 21% अन्य के पक्ष में था. आज भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में देशवासियों की पहली पसंद हैं.
क्या विपक्ष को मिलेगा भाजपा की नाकामी का फायदा ?
2019 के लोकसभा चुनावों में लगभग आठ माह शेष हैं और विपक्ष कई मुद्दों पर लगातार हमलावर है जिसमें आज ₹ की गिरती स्थिति हो, पेट्रोल-डीजल के लगातार बढ़ते दाम हों या राफेल विमान सौदे का मुद्दा हो, विपक्ष अपनी हर चुनावी रैलियों में इसका जिक्र करती है और सरकार को घेरती है. लेकिन इससे उसको कितना फायदा होगा, यह चुनाव करीब आने के साथ ही साफ हो पायेगा.
क्यों आसान है भाजपा की राह ?
भाजपा की राह इसलिए भी थोड़ा आसान नजर आती है क्योंकि भाजपा पूरे उत्तर भारत से लेकर महाराष्ट्र, बिहार में (गठबंधन सरकार) और नार्थ ईस्ट के राज्यों को मिला कर लगभग 19 राज्यों की सत्ता में मौजूद है और राजनैतिक पंडितों के मुताबिक सत्ताधारी पार्टियों को अपनी लोक-लुभावन योजनाओं के माध्यम से जनता को लोकसभा चुनावों में अपने पक्ष में करने का मौका मिलता है और भाजपा उसका भरपूर लाभ उठा सकती है. 2017 में सात राज्यों के विधानसभा चुनावों में सिर्फ एक राज्य में जीत हासिल कर पाना , यह जानने के लिए काफी है कि विपक्ष के पास मुद्दों की कमी हमेशा से रही है पिछले 4 वर्षों में विपक्ष कोई भी ऐसा पुख्ता मुद्दा सरकार के खिलाफ खड़ा नहीं कर पाई है जिसे वो कोर्ट में चुनौती दे सके या जनता को विश्वास दिला सके.
भाजपा बनाम महगठबंधन
जो विपक्ष अभी एकजुट दिख रहा है उसकी मंशा पर भी सवाल खड़े होते हैं कि यदि महागठबंधन में किसी पद को लेकर किसी भी तरह का समझौता करने के हालात पैदा हुए तो ऐसी स्थिति में क्या वह गठबंधन के साथ बनी भी रहेगी या नहीं? क्योंकि गठबंधन सरकारों के इतिहास पर नजर डालें तो उन पर विश्वास न करने के हजारों उदाहरण मिल जाते हैं।
कांग्रेस बनाम राहुल गांधी
2019 के चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए इसलिए भी अहम है क्योंकि राहुल गांधी को एक परिपक्व नेता का दर्जा मिल पायेगा और तमाम सवालों के बावजूद उनके कांग्रेस अध्यक्ष पद की साख भी बरकरार रहेगी। भले ही कांग्रेस अभी उनके PM पद की उम्मीदवारी पर कुछ नहीं कह रही क्योंकि यह महागठबंधन के ऐलान होने के बाद या चुनाव पश्चात सीटों की संख्या पर ही निर्भर होगा कि महागठबंधन का PM प्रत्याशी कौन होगा?
राजनीतिक उठा-पटक और आरोप-प्रत्यारोपों के बीच अंतिम सच्चाई यही है कि 2019 में राहुल गांधी जी आएंगे या मोदी जी वापसी करेंगे इसका फैसला जनता ही करेगी. आने वाले दिनों में हम देखेंगे कि सरकार जनता को महंगाई से कुछ राहत देती है या नहीं? विपक्ष जनता के मुद्दों के लिए सड़क से लेकर संसद तक लड़ेगी या नहीं? लोकतंत्र संख्या बल का खेल है और इस संख्या के खेल में जो भी जनता का विश्वास जीत कर संख्या हासिल करने में कामयाब होगा वही “प्रधानमंत्री” की कुर्सी पर विराजमान होगा।
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